यही है वह जगह
जहां नामालूम तरीके से नहीं आता है वसंतोत्सव
हमउमर की तरह आता है
आंखों में आंखे मिलाते हुए
मगर चला जाता है चुपचाप
जैसे बाज़ार से गुज़र जाता है बेरोजगार
एक दुकानदार की तरह
मुस्कराता रह जाता है
फूलों लदा सिंहद्वार
इस बार वसंत आए तो जरा रोकना उसे
मुझे उसे सौंपने हैं
लाल फीते का बढता कारोबार
नीले फीते का नशा
काले फीते का अम्बार
कुछ लोगों के सुभीते के लिए
डाली गई दरार
दरार में फंसी हमारी जीत – हार
किताबों की अनिश्चितकालीन बन्दियां
कलेजे पर कवायद करतीं भारी बूटों की आवाजें
भविष्य के फटे हुए पन्ने
इस बार वसंत आए तो जरा रोकना उसे
बेतरह गिरते पत्तों की तरह
ये सब भी तो उसे देने हैं .
अरे , लो
वसंत आया
ठिठका
चला गया
और पथराव में उलझ गए हमारे हांथ
फिर उनहत्तरवीं बार !
किसने सोचा था
कि हमारे फेंके गये पत्थरों से
देखते – देखते
खडी हो जाएगी एक दीवार
और फिर
मंच की तरह चौडी .
इस पर खडे लोग
मुंह फेर कर इधर भी हो सकते हैं
और पीठ फेर कर उधर भी
इस दीवार का ढहना
उतना ही जरूरी है
जितना कि एक बेहद तंग सुरंग से निकलना
जिसमें फंस कर एक जमात
दिन – रात बौनी हो रही है .
किताबों के अंधेरे में
लालीपॊप चूसने में मगन
हमें यह बौनापन
दिखाई नहीं देगा .
मगर एक अविराम चुनौती की तरह
एक पीछा करती हुई पुकार की तरह
हमारी उम्र का स्वर
बार-बार सुनाई यही देगा
कि इस अंधेरे से लडो
इस सुरंग से निकलो
इस दीवार को तोडो
इस दरार को पाटो.
और इसके लिए
फिलहाल सबसे ज्यादा मुनासिब
यही है वह जगह .
नये घर में प्रवेश पर बधाई। आपकी कविता पर टिप्पड़ी ठीक से पढ़ने के बाद करूंगा।
[…] वसंतोत्सव Published January 23, 2010 Uncategorized Leave a Comment काशी विश्वविद्यालय […]
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इस कविता को मैं बहुत समय से खोज रही थी । अभी भी आश्वस्त नहीं हूँ पूरी तरह कि यही वह कविता है जो बी एच यू केंद्रीय पुस्तकालय की दीवार पर चिपके कागज़ पर पढ़ी थी । एक पंक्ति दिमाग में रह गई थी – इस बार वसंत आये तो ज़रा रोकना उसे , ।यह कविता कब लिखी गई थी ? मैं १९८८-१९९३ में बीएच यू के भौतिकी विभाग में शोध कर रही थी और कभी कभी केंद्रीय पुस्तकालय भी जाती थी ।
इला प्रसाद
इलाजी, आपका अनुमान बिल्कुल सही है,यह वही कविता है। 1986 की sine die बन्दी के बाद कवि राजेन्द्र राजन ने यह कविता लिखी थी। हमने इसे कैम्पस में जगह जगह लगाया था और बांटा भी था।उस दौर में स्थापना दिवस के मौके पर जरूर प्रसारित करते थे। केन्द्रीय पुस्तकालय में तो अवश्य लगाया था।इस कविता का जिक्र अन्य दो पोस्ट्स में भी है-
https://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2006/09/27/bhu-foundation-mahatma-gandhi-malaviya/
https://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2006/09/29/vishvavidyalay-rajendra-rajan-gandhi-malaviya/
– अफलातून
बहुत -बहुत धन्यवाद अफ़लातून जी । मैंने निश्चित ही इसे पढ़ा था । यह हस्तलिखित था , केन्द्रीय पुस्तकालय की दीवार पर मात्र यही कविता नही थी कुछ और भी थीं लेकिन यह पंक्ति अटक गई थी मन में । आज इसे सही सन्दर्भ में जाना । मैंने अपने उपन्यास “रोशनी आधी अधूरी सी” में इस कविता का जिक्र किया है लेकिन अलग सन्दर्भ में ।यदि रचयिता का नाम जानती , सन्दर्भ जानती तो शायद यह उसी रूप में उपन्यास में आता । “रोशनी आधी अधूरी सी ” का आधा हिस्सा तो बी एच यू पर ही केंद्रित है।
इला